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Best Love Urdu Shayari With




सुनी न थी जो किसी ने वही कहानी थे
हरेक ज़बाँ को मगर याद हम ज़बानी थे


سنی نہ تھی جو کسی نے وہی کہانی تھے

ہر اک زباں کو مگر یاد ہم زبانی تھے


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जब अपने आप को गुम कर दिया तो याद आया

हम अपने पास तेरी आख़िरी निशानी थे



جب اپنے آپ کو گم کر دیا تو یاد آیا

ہم اپنے پاس تری آخری نشانی تھے


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मैं खेल मे भी नसब का ख्याल रखता था

मेरी बिसात के मोहरे भी खानदानी थे



میں کھیل میں بھی نسب کا خیال رکھتا تھا

مری بساط کے مہرے بھی خاندانی تھے


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इसीलिए तो त'अल्लुक़ नही बहाल हुआ

न हम थे प्यास के मारे, न लोग पानी थे



اسی لئے تو تعلق نہیں بحال ہوا

نہ ہم تھے پیاس کے مارے نہ لوگ پانی تھے


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किसी सराय ने रोका नही मुझे शब भर

मेरी जबीन पे वो नक़्शे बे मकानी थे



کسی سرائے نے روکا نہیں مجھے شب بھر

مری جبین پہ وہ نقش بے مکانی تھے


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हमारी प्यास के पहले भी प्यास थी शायद

समंदरों के यही रंग आसमानी थे



ہماری پیاس سے پہلے بھی پیاس تھی شائد

سمندروں کے یہی رنگ آسمانی تھے


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हमारी मौत की खुशबू से लोग है महज़ूज़

जो क़तरे ज़ह्र के चाटे थे ज़ाफ़रानी थे



ہماری موت کی خوشبو سے لوگ ہیں محظوظ

جو قطرے زہر کے چاٹے تھے زعفرانی تھے


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बता रही है ये छलकी हुई शराब हमें

जो लोग आये थे महफिल मे खानदानी थे



بتا رہی ہے یہ چھلکی ہوئ شراب ہمیں

جو لوگ آئے تھے محفل میں خاندانی تھے

سلیم صدیقی



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क्या छिपाते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!

क्या दिखाते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!!



दिल में चिट्ठी की तर्ह तुम अपने।

क्या जलाते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!!



क़तरा क़तरा यूँ अपनी आँखों से।

क्या गिराते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!!



चुपके चुपके छिपाके यूँ सब से।

क्या उठाते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!!



गुनगुना कर उसे धीरे - धीरे।

क्या सुनाते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!!



गोल शब्दों में चुपके चुपके यूँ।

क्या जताते हो? कुछ नहीं....कुछ तो....!!



इक फ़साना सुना के, याद उसे।

क्या दिलाते हो? कुछ नहीं.... कुछ तो....!!



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ग़ज़ल (غزل)



تیرے وصال کی یادیں ہیں شب کی بیماری،

ہو کیسے دور دلِ مضطرب کی بیماری۔


तेरे विसाल* की यादें हैं शब की बीमारी,
हो कैसे दूर दिले-मुज़तरब* की बीमारी।

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خدا کا توڑ کے قانون دیکھیے ہم نے،

خود اپنے ہاتھ ہی اب منتخب کی بیماری۔


ख़ुदा का तोड़ के क़ानून देखिये हमने,
ख़ुद अपने हाथ ही अब मुन्तख़ब* की बीमारी।

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ہمارے اندروں انسانیت بچی ہی نہیں،

لگی ہے جب سے یہ نام و نسب کی بیماری۔


हमारे अंदरू* इंसानियत बची ही नहीं,
लगी है जब से ये नाम ओ नसब* की बीमारी।

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گلوں کے چہرے ہوئے زرد اور چمن ویراں،

جہان بھر میں ہے پھیلی غضب کی بیماری۔


गुलों के चेहरे हुए ज़र्द* और चमन वीराँ,
जहान भर में है फैली ग़ज़ब की बीमारी।

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ہے مانا لاکھ بڑا اک عذاب کورونا،

پر اس سے بڑھ کے سیاست ہے اب کی بیماری۔


है माना लाख बड़ा इक अज़ाब कोरोना*,
पर इस से बढ़ के सियासत है अब की बीमारी।

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ہمارے بیچ کے اس پیار اس محبّت کو،

نہ لیل جائے یہ مذہب لقب کی بیماری۔


हमारे बीच के इस प्यार इस महब्बत को,
न लील जाये ये मज़हब लक़ब की बीमारी।

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یہ ذات پات، یہ عہدے، یہ خاندان و نسب،

یہ ہر جگہ کی ہے یہ آج سب کی بیماری۔


ये ज़ात पात, ये ओहदे ये ख़ानदान ओ नसब*,
ये हर जगह की है ये आज सब की बीमारी।

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ہیں چند لوگ جو رکھتے ہیں اب شعورِ ادب،

وگرنہ بھیڑ میں ہے بس ادب کی بیماری۔


हैं चंद लोग जो रखते हैं अब शऊर ए अदब,
वगरना भीड़ में है बस अदब की बीमारी।

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غزل کے نام پہ کیا کیا سُنا رہے ہیں لوگ،

بنی ہوئی ہے یہاں یہ بھی سب کی بیماری۔


ग़ज़ल के नाम पे क्या क्या सुना रहे हैं लोग,
बनी हुई है यहाँ ये भी सब की बीमारी।

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جو ذوقِ شاعری لگ جائے تو نہ چُھٹ پائے،

شہاب یہ بھی ہے اف کس طلب کی بیماری۔



जो ज़ौक़े-शायरी लग जाये तो न छुट पाए,
शिहाब ये भी है उफ़ किस तलब* की बीमारी।



:copyright:_______🖤_______

:copyright:✍एजाज़ उल हक़ "शिहाब"



شہر بدری کے دن گزر جاتے

کتنا اچھا تھا لوگ گھر جاتے



शहर-बदरी के दिन गुज़र जाते

कितना अच्छा था लोग घर जाते


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एक तो शर्म आप की और उस पे तकिया दरमियाँ,

दोनों दीवारों में इक दीवार कम कर दीजिए।


ایک تو شرم آپ کی اور اس پہ تکیہ درمیاں
دونوں دیواروں میں اک دیوار کم کر دیجیے



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न आसमाँ न ज़मीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं

किसी नज़र में नहीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



गुमान भी मैं नहीं हूँ यक़ीन भी मैं नहीं

किसी का पर्दा नशीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



मैं फूल भी तो नहीं हूँ महक से याद आऊँ

मैं काँटा बनके कहीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



अगर मैं तेरे तईं हूँ तो कुछ नहीं शायद

अगर मैं अपने तईं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



मैं तेरे साथ हूँ हरदम तू मेरे साथ नहीं

मैं हो के भी जो नहीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



न ख़ाक होती तो किस पे तू चाँद इतराता

मैं तेरी खंदा-ज़बीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



न देवदास हूँ फ़रहाद हूँ न मैं राँझा

कहानियों में नहीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं



न आसमाँ न ज़मीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं

किसी नज़र में नहीं हूँ तो क्या नहीं हूँ मैं


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एक छोटी सी संजीदा कोशिश.....



उदास बज़्म की संजीदगी के बाद उठा

हमारा जिक्र मुसलसल उसी के बाद उठा



वो जब तलक थी, तलब की सुनी नहीं दस्तक

मजीद प्यास का मंज़र नदी के बाद उठा



अजी ये छोड़िए जी कर के क्या गुनाह किया

ये क्या हिसाब सा नेकी बदी के बाद उठा



न तंज़ था न शिकायत न फिक्र थी न मलाल

अजब सा शोर मेरी जिंदगी के बाद उठा



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ज़र्द गुलाबों की ख़ातिर भी रोता है

कौन यहाँ पर मैले कपड़े धोता है



जिस के दिल में हरियाली सी होती है

सब के सर का बोझ वही तो ढोता है



सतही लोगों में गहराई होती है

ये डूबे तो पानी गहरा होता है



"सदियों में कोई एक मोहब्बत होती है

बाक़ी तो सब खेल तमाशा होता है"



दुख होता है वक़्त-ए-रवाँ के ठहरने से

ख़ुश होने को वही बहाना होता है



शरमाते रहते हैं गहरे लोग सभी

दरिया भी तो पानी पानी होता है



नूर टपकता है ज़ालिम के चेहरे से

देखो तो लगता है कोई सोता है


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ग़ज़ल / غزل



पाँव बरहना कोमल कोमल

ख़ाक उड़ायें जंगल जंगल


پانؤ برہنا کومل کومل
خاک اُڑائیں جنگل جنگل

दरिया में जब डूबने जाएें
मौजें कहतीं कल कल कल कल

دریا میں جب ڈُبنے جائیں
موجیں کہتیں کل کل کل کل

कोई रथ वथ पर नईं जाता
चाँद चले है पैदल पैदल

کوئ رتھ وتھ پر نئں جاتا
چاند چلے ہے پیدل پیدل

हर शय की अब क़ब्र बनेगा
जिस्म हुआ है पूरा दलदल

ہر شے کی اب قبر بنیگا
جسم ہوا ہے پورا دلدل

सब का क्या है ? दुख तो ये है
तुम भी चीखे़ पागल पागल

سب کا کیا ہے ؟ دُکھ تو یے ہے
تم بھی چیخے پاگل پاگل

इस तस्वीर की ख़ूबी ये है
हर शय में होती है हलचल

اس تصویر کی خوبی یے ہے
ہر شے میں ہوتی ہے ہلچل

शायद कुछ मौसम है गड़बड़
चाँद की खिड़की में है हलचल

شاید کچھ موسم ہے گڑبڑ
چاند کی کھیڑکی میں ہے ہلچل

चूम लुँ उस घर की दीवारें
जो तकतीं हैं उनको हर पल

چوم لوں اُس گھر کی دیواریں
جو تکتیں ہیں اُنکو ہر پل

मुझ सह़रा से बच कर निकले
जो खुद में थे पूरे जल थल

مجھ صحرہ سے بچ کر نکلے
جو خود میں تھے پورے جل تھل

खड्डी जुलाहे की ये पुकारे
फ़ैलुन फ़ैलुन चल चल चल चल

کھڈی جُلاہے کی یہ پکارے
فیلن فیلن چل چل چل چل



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बढ़ गया था प्यास का एहसास, दरिया देख कर

हम पलट आए मगर, पानी को प्यासा देख कर



हम भी हैं शायद किसी, भटकी हुई कश्ती के लोग

चीखने लगते हैं ख़्वाबों में, जज़ीरा देख कर



जिस की जितनी हैसियत है, उसके नाम उतना ख़ुलूस

भीक देते हैं यहाँ के लोग, कासा देख कर



माँगते हैं भीक अब, अपने मुहल्लों में फ़क़ीर

भूक भी मोहतात हो जाती है, ख़तरा देख कर



ख़ुदकुशी लिक्खी थी, एक बेवा के चेहरे पर, मगर

फिर वो ज़िंदा हो गई, बच्चा बिलखता देख कर


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सहरा सहरा प्यासे भटके सारी उम्र जले ,

बादल का इक टुकड़ा क्या है अब मालूम हुआ..



हँसते फूल का चेहरा देखूँ और भर आए आँख ,

अपने साथ ये क़िस्सा क्या है अब मालूम हुआ..



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ग़ज़ल



हुक्म से उस के ही वाबस्ता अदा है मेरी

रब्ब-ए-अकबर से कहाँ ज़ात जुदा है मेरी



लोह पे उसने जो लिक्खा है वही करता हूँ

अब भी पोशीदा मशीयत में ख़ता है मेरी



अपनी मस्ती का मुझे नाज़ इसी बात से है

बेखुदी में ही ख़ुदी जल्वानुमा है मेरी



गुलशने हिन्द का इक गुल हूँ व
फ़ादार हूँ मैं
बुलबुलों ने जो बयाँ की है वफ़ा है मेरी


मौत उसे देख के मैदान में शर्मिंदा है

जाँ लुटाने की ख़ुदा पर जो अदा है मेरी



जो मरज़ फैला है दुनिया को मिले उस से नजात

ऐ ख़ुदा हर घड़ी तुझ से ये दुआ है मेरी



काश हो जाऊँ कभी इश्क़े इलाही में फ़ना

ये तमन्ना है इसी में तो बक़ा है मेरी



नाम है मेरा 'शकील' और क़लंदर भी तो हूँ

जिस में पैवंद लगे हैं वो क़बा है मेरी


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न क़सदम हैं ,न अफ़ई ,न अज़दर

मिलेंगें शहर में,, इन्सान ही क्या...!!!



शिकस्त-ए-ए'तिमाद-ए-ज़ात के वक़्त

क़यामत आ रही थी ,,आ गई क्या...!!!


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तुझसे बिछड़ कर आस की चादर, मैंने अगर फैलाई ना हो

मेरे घर के दरवाज़ों की, आंखों में बिनाई ना हो



शब भर तेरे ख़्वाब बुने थे, मेरी जागती आँखों ने

दिन भर ये एहसास रहा है, आज कहीं तू आई ना हो



डूब के मर जाने की ख़्वाहिश, जागी है तो देर ना कर

मुमकिन है फिर इस दरिया में, इतनी भी गहराई ना हो



बस्ती-बस्ती, जगमग-जगमग, दरवाज़ों पे दस्तक दूँ

और कोई आवाज़ ना उभरे, ऐसी भी तनहाई ना हो



दो-राहे पर मिलने वाले, मिलना है तो ऐसे मिल

ख़्वाबों के गुलदान ना टूटें, यादों की पुरवाई ना हो



जिसने दीवारों पे अपने, उजले अक्स को छोड़ा है

कमरे की ख़ामोश फ़िज़ा भी, उसने ही महकाई ना हो



अनजाने रस्तों के मुसाफ़िर, क्या ऐसा भी मुमकिन है ?

तेरे नाम से ग़ज़लें लिक्खूँ, और तेरी रुसवाई ना हो


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ज़रा सा और ठहरना था, वक्त था हीं नहीं

हमें सुकून से मरना था, वक्त था हीं नहीं



गले लगाया, मुस्कुराए, और चलते बने

उसे आँखों में भी भरना था, वक्त था हीं नहीं



उदास दिल को हँसाया और अश्क़ पोंछ दिये

उदास दिल में उतरना था, वक्त था हीं नहीं



तमाम लोग मेरे सामने से जाते रहे

मुझे भी साथ निकलना था, वक्त था हीं नहीं



सिमट गए तेरे पहलू में, थक के चूर थे हम

अरे! गिला भी तो करना था, वक्त था हीं नहीं



सफ़र से लौट कर हम सो गये थे शाम तलक

और एक सफ़र पे निकलना था, वक्त था हीं नहीं



यूँ हीं गुज़ार दिया दौर-ए-हिज्र रो कर के

हमें तो हद से गुजरना था, वक्त था हीं नहीं



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ग़ज़ल



इश्क़ की बारिशों में भीगी हुई, ज़िन्दगी सूखती नहीं है कभी

डोर दिल से जो दिल की जुड़ जाये, ताउमर टूटती नहीं है कभी



आज जो है वही हमारा है, इसको जी लो बिना किये शिक़वा

वक़्त की रेल जो गुज़र जाये, मुड़ के वो देखती नहीं है कभी



जबसे दुनिया बनी है तबसे माँ, अपने बच्चों पे जान देती है

बच्चे खाना भी रोक दें क्यों न,वो दुआ रोकती नहीं है कभी



उसकी मासूमियत के बदले में, सिर्फ इतनी सी बात कहनी है

बेअक़ल बोलता बहोत है मगर, सोच कर बोलता नहीं है कभी



चाहे जितना छुपो, बचो, भागो, एक दिन सबकी बारी आती है

मौत शातिर है ढूंढ लेती है, कम्बख़त भूलती नहीं है कभी



इक मोअम्मा सी ज़िन्दगी सबकी, अपनी धुन में गुज़रती रहती है

कौन से पल में क्या छुपा है यहाँ, राज़ ये खोलती नहीं है कभी!


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कौन समझेगा इस कहानी को!

यानी मुफलिस की ज़िंदगानी को!!



प्यास क्यूँ-कर बुझाये सहरा की!

है समंदर की प्यास, पानी को!!



दिल किनारे का, छू नहीं पाया!

दोष देता है वो रवानी को!!



मेरे मौला इधर नज़र कर दे!

है ख़तर इस जहान-ए-फ़ानी को!!



कितना नादाँ है दिल 'मुसारिफ' का!

ढूंढता है जो उनके, सानी को!!


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ये दुनिया आपकी देखी हुई है, सो अब घर मे रहिये

वबा हर सम्त फैली हुई है, सो अब घर में रहिये।


یہ دنیا آپکی دیکھی ہوئی ہے سو اب گھر میں رہیئے،
وبا ہر سمت پھیلی ہوئی ہے سو اب گھر میں رہیے۔

ये मिलना मिलाना लगा रहेगा अगर रहे तो,
मौत बाहर खड़ी हुई है, सो अब घर मे रहिये

یہ ملنا ملانا لگا رہیگا اگر رہے تو،
موت باہر کھڑی ہوئی ہے سو اب گھر میں رہیے،




ज़िन्दग़ी से तंग हो फ़ज़ल फिर भी अगर तुमको,

गुज़ारनी है जो बची हुई है, सो अब घर में रहिये!


زندگی سے تنگ ہو فضل فر بھی تم کو،
گزارنی ہے جو بچی ہوئی ہے سو اب گھر میں رہیے۔


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दिल की बात लबों पर लाकर, अब तक हम दुख सहते हैं|

हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं|



एक हमें आवारा कहना कोई बड़ा इल्ज़ाम नहीं,

दुनिया वाले दिल वालों को और बहुत कुछ कहते हैं|



बीत गया सावन का महीना मौसम ने नज़रें बदली,

लेकिन इन प्यासी आँखों में अब तक आँसू बहते हैं|



जिस की ख़ातिर शहर भी छोड़ा जिस के लिये बदनाम हुए,

आज वही हम से बेगाने-बेगाने से रहते हैं|



वो जो अभी रहगुज़र से, चाक-ए-गरेबाँ गुज़रा था,

उस आवारा दीवाने को 'ज़लिब'-'ज़लिब' कहते हैं|


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दिल की बात लबों पर ला कर अब तक हम दुख सहते हैं

हम ने सुना था इस बस्ती में दिल वाले भी रहते हैं



बीत गया सावन का
महीना मौसम ने नज़रें बदलीं
लेकिन इन प्यासी आँखों से अब तक आँसू बहते हैं




دل کی بات لبوں پر لا کر اب تک ہم دکھ سہتے ہیں

ہم نے سنا تھا اس بستی میں دل والے بھی رہتے ہیں



بیت گیا ساون کا مہینہ موسم نے نظریں بدلیں

لیکن ان پیاسی آنکھوں سے اب تک آنسو بہتے ہیں


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मैं उस की आँखों से छलकी शराब पीता हूँ

ग़रीब हो के भी महँगी शराब पीता हूँ



मुझे नशे में बहकते कभी नहीं देखा

वो जानता है मैं कितनी शराब पीता हूँ



उसे भी देखूँ तो पहचानने में देर लगे

कभी कभी तो मैं इतनी शराब पीता हूँ



पुराने चाहने वालों की याद आने लगे

इसी लिए मैं पुरानी शराब पीता हूँ


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ग़ज़ल



पहले था अश्कबार आज भी है

दिल मेरा सोगवार आज भी है



मैं नहीं हूँ किसी भी लायक पर

आपको एतिबार आज भी है



जो था पहले वही है रिश्ता-ए-दिल

प्यार वो बेशुमार आज भी है



इश्क़ आँखें बिछाए बैठा है

आपका इंतज़ार आज भी है



लाख दुनिया ने तोड़ना चाहा

दिल से दिल का क़रार आज भी है



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